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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4197
आईएसबीएन :0000

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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र

अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश


ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण जीवात्मा दिव्य विभूतियों से सम्पन्न है। उसे यह विभूतिमत्ता बीज रूप में जन्मजात मिली है। उसकी संभावना इस स्तर की है कि विकास मार्ग पर चलते हुए पुनः ईश्वरत्व में प्रवेश करके तदनुरूप बन सके। इतनी अद्भुतशक्ति- संभावना का धनी होने पर भी उसे अपने समस्त क्रियाकलाप शारीरिक अवयवों के द्वारा ही सम्पन्न कराने पड़ते हैं। जीवात्माओं की इच्छा, अभिलाषा कुछ भी क्यों न हो, पर वह उन्हें संकल्प मात्र से पूरा नहीं कर सकता। इसके लिए उसे शारीरिक अवयवों का, मानसिक संरचना का उपयोग करना ही पड़ता है। बिना इसके हलचलों की सक्रियता दीख नहीं पड़ती। यह वास्तविकता इस सीमा तक प्रकट होती है कि यदि शरीर और प्राण पृथक् हो जाए, तो अकेला जीवात्मा अदृश्य लोकवासी चेतना स्फुल्लिग मात्र बनकर रह सकती हैं। उसके द्वारा किन्हीं निर्धारणों का क्रियान्वित कर सकना संभव नहीं रहता।

ठीक यही बात परब्रह्म के सम्बन्ध में भी है। यह सर्वव्यापी और व्यवस्थापक होने के नाते निराकार ही रह सकता है। प्रतिमाएँ तो ध्यान धारणा के निमित्त ही बनाई जाती रहती हैं। निराकार परमेश्वर को सृष्टि के विभिन्न क्रियाकलाप सम्पन्न करने के लिए किन्हीं शरीरधारियों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। वे सहयोगी दो प्रकार के होते हैं। एक विशिष्ट दूसरे वरिष्ठ। विशिष्टों में देव शक्तियाँ आती हैं। उन्हें मोटे तौर से तीन भागों में विभाजित किया जाता हैं। सृजेता ब्रह्मा, अभिवर्धक विष्णु और परिवर्तन प्रधान शिव । इन्हें देवी रूप में मान्यता दी जाती हैं, तो वे ही ब्राह्मी, वैष्णवी, शाम्भवी समझी जाती है। इनमें जब त्रिवर्गी के भेद-उपभेदों को गिना जाता है, तो उनके भेद तैंतीस कोटि हो जाते हैं। कोटि शब्द श्रेणियों के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है और करोड़ के अर्थ में भी। देवताओं की तैंत्तीस कोटियाँ हैं या वे तैंत्तीस करोड़ हैं। इस विवाद में न पड़कर यहाँ इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि वे अनेकानेक हैं और अपने-अपने हिस्से का काम करते रहते हैं। देवताओं के दो ही काम हैं 'धर्म की स्थापना और अधर्म का निराकरण।' शरीर भी यही करता है। जो उपयोगी है उसे मुँह, नासिका आदि से ग्रहण-धारण करता रहता है। जो कचरा है उसे मल, मूत्र, स्वेद आदि के रूप में बाहर फेंकता रहता है। जहाँ क्रिया होती है वहाँ कचरा भी बनता है। मशीनों में भी यही होता रहता है। वे ऊर्जा माँगती है और कचरा उगलती है। सृष्टि में भी यही होता रहता है। दोनों की व्यवस्था करने में ईश्वर की इच्छा के अनुरूप देव शक्तियाँ जुटी रहती हैं। वे सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में निरन्तर निरत रहती हैं। सृष्टि का सन्तुलन इसी प्रकार बना रह पाता है।

देवताओं के उपरान्त दूसरा समुदाय सिद्ध पुरुषों का है। वे भी आमतौर से अदृश्य ही रहते हैं। पर आवश्यकतानुसार स्थूल शरीर भी धारण कर लेते हैं। देवता परब्रह्म के अधिक निकट हैं और सिद्ध पुरुष प्रकृति के। दैवी इच्छानुसार समस्त विश्व ब्रह्माण्ड की सुव्यवस्था बनाए रहने में देवताओं की प्रमुख भूमिका रहती है। सिद्ध पुरुषों का कार्य क्षेत्र पृथ्वी तक सीमित है। वे पृथ्वी पर चलने वाले उथल-पुथल को सन्तुलित करते हैं। आत्मशक्ति सम्पन्न, सात्विक, सज्जन प्रकृति के उदारचेताओं को वे ढूँढ़ते रहते हैं और जो भी सत्पात्र दीख पड़ते हैं, सत्प्रयोजनों की पूर्ति के लिए अपनी क्षमता का एक अंश धारणकर्ता को आवश्यकता एवं पात्रता के अनुरूप देते रहते हैं। इस प्रकार की अहैतुकी कृपा वे बरसाते रहते हैं। श्रेष्ठता सम्पन्नों को ऐसे वरदान निरन्तर मिलते रहते हैं। साथ ही उनका दूसरा कार्य भी चलता है- अनौचित्य का निराकरण। इसी को अधर्म का उन्मूलन भी कहा जा सकता है। धरातल के दिग्पाल-दिग्गज, यह सिद्ध पुरुष ही कहे जाते हैं। वे पृथ्वी का भौतिक और आत्मिक, पदार्थपरक और चेतनात्मक संतुलन बनाये रहने के लिए यथा संभव प्रयत्न करते हैं। इन्हें धरती वासियों के लिए परब्रह्म का विशेष अनुग्रह भी समझा जा सकता है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
  2. देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
  3. अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
  4. अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
  5. पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
  6. तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
  7. सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
  8. सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
  9. हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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